परिणीता भाग :- ७
Parineeta भाग :-
लाचारीवश उसे उठना ही पड़ा, परंतु जाते समय उसकी कृतज्ञ दृष्टि गिरीन्द्र पर पड़ रही थी। इस कृतज्ञता-भरी दृष्टि को गिरीन्द्र पूर्णरूप से समझ गया था।
थोड़ी देर में ही खूब बनाव-श्रृंगार के साथ, पान देने के बहाने फिर एक बाहर वह बाहर के कमरे में आई, परंतु उस समय गिरीन्द्र वहाँ से चला गया था, केवल गुरुचरण बाबू ताकिए के सहारे लेटे थे। उनकी बंध आँखों के कोनों पर आंसुओं की रेखा झलकती थी। ललिता तुरंत समझ गई कि यह खुशी के आँसू हैं! यह जानकर उनका ध्यान भंग करना ठीक न समझकर वह चुपचाप ज्यों-की-त्यों लौट गई।
कमरे से बाहर आकर ललिता सीधे शेखर के घर पहुंची। अपने मामा की दशा को सोचकर उसकी आँखों में आँसू उमड़ आए थे। अन्नाकाली उस समय वहाँ न थी, वह पहले ही जाकर गाड़ी में बैठ गई थी। कमरे के ठीक सामने शेखर खड़े-खड़े ललिता की ही बाट जोह रहा था। सिर उठाकर देखने पर उसे ललिता की भरी आँखें दिखाई दीं। इधर कई दिनों से ललिता को न देखा था, इसीलिए शेखर और अधिक परेशान था। ललिता के आंसुओं को देखर शेखर का हृदय भी द्रवित हो आया, और सने ललिता से पूछा- ‘यह क्या? ललिता, क्या तुम रो रही हो? क्यों, क्या बात है?’
ललिता ने सिर हिलाकर अपना मुंह नीचा कर लिया।
कई दिनों से ललिता को न देखने के कारण, तरह-तरह की भावनाओं का जागरण शेखर के हृदय में हो रहा था। वह बड़ें स्नेह के साथ ललिता का मुंह ऊपर उठाकर बोला- ‘अरे, सचमुच ही तुम रो रही हो! आखिर बताओ तो क्या हुआ, ललिता?’
शेखर की इस सहानुभूति तथा प्रेम-भाव को देखर, वह अपने को संभाल न पाई। वह जहाँ खड़ी थी, शेखर की ओर पीठ करके वहीं पर बैठ गई, और मुंह ढांपकर जोर-जोर से रोने लगी। शेखर सहानुभूति का प्रदर्शन करता रहा।
(6)
नवीन ने भूल तथा सूध जोड़कर रूपये गुरुचरण बाबू से लिए। अब कुछ भी बाकी नहीं रहा गया। तमस्सुक वापस करते समय उन्होंने गुरुचरण बाबू से पूछा- ‘कहो गुरुचरण बाबू, यह इतने रूपए तुम्हें किसने दिए?’
नवीन राय अपने रुपए पाकर तनिक भी खुश नहीं हुए। रूपए वापस लेने की न तो इच्छा ही थी, और न ही वह गुरुचरण बाबू से ऐसी उम्मीद करते थे। उनके हृदय में तो एक दूसरी ही धारणा थी कि वह गुरुचरण बाबू का मकान गिराकर, उस पर अपना दूसरा महल खड़ा करेंगे। वह इच्छा पूरी न हुई। इसी कारण वह आवेश में आकर व्यंग्यपूर्वक कहने लगे- ‘वह क्यों न मनाही की होगी, भैया गुरुचरण! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, सारा दोष और लगाव तो मेरा है, जो मैंने तुमसे रूपयों का तकाजा किया। यही कलियुग की उल्टी माया है।’
दुःखपूर्ण शब्दों में गुरुचरण बाबू ने कहा- ‘भैया! आप ऐसा क्यों कहते हैं? मैंने तो केवल आपका रूपया अदा किया है। आपकी दया का बोझ मेरे ऊपर सदैव रहेगा, मैं उससे कभी ऋणमुक्त न होऊंगा।’
नवीन बाबू यह सुनकर मुस्कराए। वे बड़े ही पक्के जो ठहरे! यदि वह ऐसे पक्के न होते, तो केवल गुड़ के ही व्यापार से इतनी अधिक धनराशि न इकटठा कर पाते। वे बोले- ‘भैया! तुम कुछ भी क्यों न कहो, परंतु ऐसे विचार होने पर, वास्तव में पूरा रूपया इस प्रकार न अदा करते। मैंने तो केवल रूपए मांगे थे, वही भी तुम्हारी मामी की बीमारी के लिए। अच्छा खैर, यह तो बताओ कि कितने रूपए सूद पर मकान को रेहन रखा है?’
‘न तो घर ही रेहन किया और न ब्याज ही कुछ तय हुआ है।’
नवीन राय को तनिक विश्वास न हुआ। उन्होंने पूछा- ‘अरे! क्या इतने रूपए बिना लिखा-पढ़ी?’
‘हां दादा, ऐसा ही है। बहुत ही सज्जन लड़का है! ऐसा जान पड़ता है कि दया मूर्ति है।’
‘लड़का? कौन सा लड़का?’
गुरुचरण बाबू ने इस प्रश्न का उत्तर नहीं दिया। जो कुछ कह डाला, वह नहीं कहना चाहिए था।
गुरुचरण बाबू को चुप देखकर नवीनराय समझ गए कि वह कुछ भी बताना ठीक नहीं समझते। इस कारण मुस्कराते हुए बोले, ‘अच्छा, बताना मना है तो न बताओ, जाने दो! फिर भी सुनो, मैंने दुनिया के सभी रंग देखे हैं। कोई भी बिना मतलब रूपए निकालकर नहीं देता। कहीं ऐसा न हो कि आगे किसी परेशानी का शिकार बन जाओ। इसीलिए तुमको अभी से चेतावनी दे रहा हूँ।’
गुरुचरण बाबू कूछ उत्तर न देकर तमस्सुक हाथ में लेकर चल दिए। चलते समय नवीनराय को उन्होंने नम्रतापूर्वक नमस्कार किया।
अपने स्वास्थ्य सुधार हेतु भुवनेश्वरी प्रायः पश्चिम के किसी शहर को चली जाया करती थीं। जलवायु बदल जाने से उनका अजीर्ण-रोग बहुत कुछ दब जाता था। उसी रोग के बहाने नवीनराय गुरुचरण बाबू से कड़ा तकाजा कर बैठे थे। अब भुवनेश्वरी की भी तैयारी पश्चिम जाने के लिए होने लगी।
अन्नाकाली शेखर के कमरे में पंहुची और बोली- ‘शेखर भैया! आप लोग कल ही बाहर जा रहे हैं?’ इस समय शेखऱ अपना सामान संभालकर रखने में लगा हुआ था। उसने ऊपर देखकर अन्नाकाली से कहा- ‘मेरी प्यारी बहिन! जाकर दीदी को तो बुला ला! उसे भी जाने के लिए जो कुछ ठीक करना हो, कर जाए! अभी तो मुझे सैकड़ो काम करने बाकी हैं। समय भी अधिक नहीं है!’ शेखर का ख्याल था कि हर साल की तरह ललिता भी जाएगी।
गरदन हिलाकर अन्नाकाली ने कहा- ‘इस बार दीदी साथ नहीं जाएंगी?’
‘क्यों नहीं जाएंगी?’
‘वाह! आपको यह भी पता नहीं? इसी माध-फागुन में शादी करने के लिए पिताजी उसके वर की तलाश कर रहे हैं।’
यह सुनते ही शेखऱ दुःखी हो गया। उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया, भौंचक्का-सा देखता रहा।
जो कुछ अन्नाकाली ने घर से सुना था, वह सब विवरण के साथ शेखर को सुनाया। ‘उसने कहा कि शादी में जो भी खर्च होगा गिरीन्द्र बाबू देंगे। लड़का भी हर प्रकार से योग्य होना चाहिए। योग्य वर की खोज में, पिताजी आज भी दफ्तर नहीं जाएंगे। वह गिरीन्द्र बाबू के साथ वर देखने जा रहे हैं।’
इन सभी बातों को शेखऱ ध्यानपूर्वक सुनता रहा। उसके हृदय में तरह-तरह की भावनांए उठने लगीं। उसने देखा है कि इधर ललिता उसके पास बहुत ही कम आती है।
अन्नाकाली फिर बोली- ‘भैया, गिरीन्द्र बाबू बहुत ही भले आदमी हैं। मझली दीदी के ब्याह में हमारा मकान ताऊजी ने रेहन रखा था।’ इस बात को सोचकर बाबूजी कहते थे कि दो माह बाद घर हाथ से निकल जाएगा। और सड़क की ठोंकरो का सामना करना होगा। इसी बात पर दया-सागर गिरीन्द्र बाबू ने बाबूजी को कर्ज का सारा रूपया दे दिया। छोटी दीदी कल कहती थी कि अब हम लोगों को घर छोड़ने का भय नहीं रहा। सच है न, शेखऱ दादा?
इन बातों को अन्नाकाली से सुनकर शेखर अवाक् हो गया और कुछ भी उत्तर न दे सका।
शेखर को चुप देखकर अन्नाकाली ने पूछा- ‘क्या सोच रहे हो, दादा?’
शेखर यह सुनकर चौंक पड़ा औऱ बोला- ‘जा, दीदी को जल्दी बुला तो ला! यह बता देना कि मैंने बुलाया है , जरूरी काम है। दौड़ती हुई जा!’
तुरंत दौड़ती हुई अन्नाकाली ललिता को बुलाने गई। उसके जाने पर शेखर भावनाओं के सागर में उथल-पुथल मचाने लगा। सामने संदूक खोले वह ज्यों-का-त्यों बैठा रहा। उसकी समझ में नहीं आया कि क्या साथ ले जाए और क्या नहीं! उसे नेत्रो में चकाचौंध प्रतीत होने लगा।
शेखर के बुलावे को सुनकर ललिता तुरंत ऊपर आई, परंतु कमरे में जाने के पूर्व उसने शेखर को बड़े गहरे विचारों में निमग्न-सा देखा। शेखर जमीन की और ताक रहा था। सामने संदूक खुला पड़ा था, चेहरे पर चिंता की रेखा झलक रही थी। शेखऱ की ऐसी दशा तथा उसकी ऐसी मुखाकृति ललिता ने पहले कभी न देखी थी। वह आश्चर्य में पड़ गई। साथ-ही-साथ उसे भय भी हुआ। डरते हुए, धीरे-धीरे वह शेखऱ के पास आई। उसको देखते हुए शेखर ने कहा- ‘आओ ललिता, बैठो!’ शेखर को मानो अब स्वप्न से कुछ छुटकारा मिला।
बड़े ही मंद स्वर में ललिता ने पूछा- ‘मुझे आपने बुलाया था?’
‘हां?’- फिर थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने कहा- ‘कल सवेरे की गाड़ी से, माँ के साथ मैं इलाहाबाद जा रहा हूँ। हो सकता है कि इस बार लौटने में देर हो जाए। यह चाभी लो, तुम्हारी आवश्यकता के रूपए दराज में है।’
प्रतिवर्ष ललिता बड़े उत्साह से भुवनेश्वरी के साथ जाया करती थी। उसको स्मरण हुआ कि कितने उत्साह के साथ वह सभी सामान संभालकर इसी बक्स में रखा करती थी। आज उसे खुले हुए संदूक को देखकर दुःख हो आया।
शेखर खांसकर गले को साफ करते हुए और उसकी और देखते हुए बोला- ‘ललिता, देखो-बहुत होशियारी से रहना! फिर भी यदि तुम्हें कोई जरूरत लगे, तो भैया से मेरा पता लेकर, बिना संकोच मुझे लिखना।’
दोनों ही चुप रह गए। ललिता मन-ही-मन अनुमान करने लगी कि शायद शेखर को मालूम हो गया है कि इस बार वह उनके साथ न जाएगी। साथ ही मन-ही-मन यह भी साचो कि शायद उन्हों मेरे न जाने का कारण ज्ञात हो गया होगा! इस बात को सोचकर वह मानो शर्म से जमीन में धंस गई।
एकाएक शेखर ने कहा- ‘ललिता, अब तुम जाओ! तुमको मालूम है कि मुझे बहुत से काम करने हैं। काफी समय हो आया है, ओफिस भी जाना है।’